होश की दवा खाओ, शरीफ़ा बीबी!
प्रिय शरीफ़ा बीबी,
तुमसे हुई उस छोटी सी मुलाक़ात के बाद अब भी मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ.
तुम इतनी ज़िद्दी क्यों हो? जो कुछ हुआ उसे भूल जाओ ना !
दस साल गुज़र गए हैं. दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई. आठ साल के बच्चे अब अठारह साल के नौजवान हो चले हैं.
देखों तुम्हारे शहर की सड़कें कितनी चौड़ी हो गई हैं. कितनी तो ऊँची ऊँची कॉलोनियाँ बन गई हैं. कारें, कितनी तो चमचमाती कारें हो गई हैं. और शॉपिंग मॉल्स?
अब तो लगातार तीसरी बार तुम्हारे रहनुमा तुम्हें विकास यानी तरक़्क़ी की राह पर ले जाने को तैयार हैं.
पर तुम हो कि अब भी हर आने जाने वाले को वही पुरानी कहानी सुनाती हो.
जैसे कि मुझे सुनाई तुमने अपनी रामकहानी कि कैसे उस सुबह तुम चाय पी के बैठी थीं और अचानक तुमने देखा कि टुल्ले के टुल्ले आ रहे थे. हथियारों से लैस लोगों की भीड़.
कैसे तुम और तुम्हारा आदमी पुलिस वालों के पास मदद माँगने पहुँचे और फिर पुलिस वालों ने तुम्हें ये कह कर भगा दिया कि आज तुम्हारा मरने का दिन है, वापिस घर जाओ.
अब ऐसी भारी भीड़ के सामने पुलिस वाले क्या कहते भला? बोर हो गया मैं तुम्हारी दास्तान सुनकर.
और अब तुम ये याद करके करोगी भी क्या कि जब तुम और तुम्हारे बच्चे जान बचाने को इधर-उधर भाग रहे थे, तुम्हारा सबसे बड़ा बेटा पीछे छूट गया?
ये याद करके भी क्या करोगी कि उसको भीड़ ने पाइप, लाठियों और तलवारों से मारा.
और ये याद करके भी क्या करोगी कि जब उसका कत्ल किया जा रहा था तो तुम जाली के पीछे से छिपकर देख रही थी और तुम्हारी आँखों के सामने ही भीड़ ने उसपर मिट्टी का तेल डालकर उसे जला डाला?
देखो सब आगे बढ़ गए हैं. तुम कब तक उन यादों में उलझी रहोगी. तुम लोगों की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि तुम भूल नहीं सकते.
ग़ुस्सा सबको आया था तब. आया था कि नहीं? सब पढ़े-लिखे अँग्रेज़ी बोलने वाले लोगों ने रुँधे गले से कहा था - दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल.
फिर एक्सेप्ट कर लिया ना?
अमिताभ बच्चन ने किया. अंबानी ने किया. रतन टाटा ने किया.
शरीफ़ा बीबी तुम बड़ी कि रतन टाटा? तुम बड़ी कि अंबानी और अमिताभ बच्चन? रहो अपनी ज़िद पर अड़ी हुई. अरे कहाँ इतने नामवर लोग और कहाँ तुम? कुछ सोचो.
अब देखो ना, अहमदाबाद में अपने होटल के कमरे में बैठकर जिस समय तुमको मैं ये ख़त लिख रहा हूँ, टेलीविज़न की स्क्रीन से पूरे देश का ग़ुस्सा फटा पड़ रहा है.
दिल्ली की एक बस में चार लोगों ने नर्सिंग की पढ़ाई कर रही 23 साल की एक लड़की के साथ चार लड़कों ने बलात्कार किया, लोहे के सरियों से उसके पेट पर इतने प्रहार किए कि उसकी आँते तक कुचल गईं. उस लड़की और उसके दोस्त के कपड़े उतारकर हमलावर उन दोनों को चलती बस से फेंक कर चलते बने.
अभी फिर से सभी नेता और अभिनेता रो रहे हैं. कह रहे हैं कि दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल.
आज जिसे अनएक्सेप्टेबल कहा जाता है, पढ़े लिखे लोग कल उसे एक्सेप्टेबल मान लेते हैं या फिर उसका ज़िक्र ही नहीं करते.
तुम्हारी क्या मत्ति मारी गई है, शरीफ़ा बीबी? तुम भी धीरे से कहना सीखो --दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल. और फिर भूल जाओ.
होश की दवा खाओ, शरीफ़ा बीबी, होश की दवा!
(नोट: शरीफ़ा बीबी एक काल्पनिक चरित्र नहीं है. कई मरने वालों ने मरने से पहले इन्हें अपनी आँखों से देखा है. ज़िंदा लोग अब भी उन्हें देख सकते हैं. आप भी अगर ज़िंदा हैं तो इस ज़िद्दी औरत से अहमदाबाद की नरोदा पाटिया बस्ती में मुलाक़ात कर सकते हैं.)

टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें
मैं उम्मीद करता हू कि बीबीसी कभी एक ऐसा कि लेख सिख जनता के लिए भी लिखने कि हिम्मत जुटाए!! उस प्रकरण के गुनाहगार अभी तक खुले घूम रहे है, ये बड़ा कि शर्मनाक है कि आप २००२ कि बात तो करते है पर १९८४ को पूरी तरह से भुला देते है!! आखिर एक स्वतंत्र मीडिया संस्थान को ऐसा दोहरा मानदंड रखने कि क्या आवश्यकता है यह मेरी समझ के परे है!!
विडम्बना यह है कि मुसलमान भारत में भारतीय होने से पहले खुद को मुस्लिम के रूप में ज्यादा प्रस्तुत करते हैं . रही बात गोधरा नरसंहार की प्रतिक्रिया की तो कश्मीर में अनेक मदिरो को तोडा गया. कितने हिन्दुओ का नरसंहार हुआ , उनकी बेटियों के साथ बलात्कार किया गया . तब आप जैसे 'सेकुलर' लेखक किस बिल में छुप कर बैठे थे ?
सर, नरोदा पाटिया से आपकी मैने रिपोर्टिँग भी सुनी थी. अब मुझे ये समझ में नहीँ आ रहा कि ये ब्लाग ज्यादा अच्छा है या रिपोर्टिँग. लोग धर्म के नशे में एक दूसरे को काट देते है जिसमें अंततः मानवता ही शर्मसार होती है.
इस लेख को लिखते समय क्या आपको ट्रेन में जिन्दा जले लोग याद नहीं आए? शर्म आनी चाहिए आप जैसे लोगों को जो तस्वीर का एक पक्ष ही हर बार सामने रखते हैं.
ये मुसलमानों पर नहीं बल्कि मानवता पर हमला था.
शरीफ़ा बीबी और उनके चमचो होश में आओ. हिन्दुओ को जलाने पे ये तो होना ही था.
अपना दर्द कोई दूसरा कभी नहीं समझ सकता.
बेहद मार्मिक. आपकी कलम ने रुला दिया.
मणिपुर में मनोरमा को भारतीय सेना के जवान उठा कर ले गये और बलात्कार करने के बाद उसकी जननांग में गोलियाँ दाग दीं. मनोरमा के बलात्कारियों को बचाने के लिये भारत सरकार आज भी मुकदमा लड़ रही है . इसके विरोध में उसकी सहेली इरोम शर्मिला बारह साल से अनशन पर है. उड़ीसा की आदिवासी लड़की आरती मांझी को सुरक्षा बलों ने घर में घुस कर उठा लिया, आरती के साथ महीना भर थाने में बलात्कार किया और उसके बाद उसे भी जेल में डाल दिया. आवाज उठाने वाले दंडपानी महन्ती के बेटे को पुलिस ने जेल में डाल दिया. आरती अभी भी जेल में है. सरकार बलात्कारियों को बचाने के लिये मुकदमा लड़ रही है. छत्तीसगढ़ की आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी को पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोर्ट में जाने की सजा के तौर पर पकड कर थाने ले जाकर उसे बिजली का करेंट लगाया गया और उसके गुप्तांगों में पत्थर भर दिये, अस्पताल के डाक्टरों ने पत्थर के टुकड़े निकाल कर सर्वोच्च न्यायालय को भेज दिये. उसके बाद भी सरकार पुलिस वालों को बचाने के लिये मुकदमा लड़ रही है. सोनी सोरी अभी भी जेल में है. कौन कहता है बलात्कार करना जुर्म है? आप सरकार की तरफ से अमीरों के लिये बलात्कार करिये. आपको सरकार अपने खर्च पर बचायेगी. और यही समाज आप पर फक्र करेगा. आपको बहादुरी के तमगे देगा. बस आपको यह पता होना चाहिये कि इस देश में आपको किसकी तरफ रहना है और किसकी तरफ नहीं. आप मुसलमानों, दलितों, ईसाईयों या आदिवासियों की तरफ हैं तो फिर आपकी बेटियों के साथ सरकारी खर्च पर बलात्कार किया जा सकता है. गर्व कीजिये आप देव भूमि के निवासी हैं .
राजेश आपने बहुत हीं सरल और साफ शब्दों में पूरी स्थिति का विश्लेषण किया है अब कहने को क्या बाकी रह जाता है.
मैं अपना नाम नहीं लिख रहा हूँ वर्ना पढ़नेवाले इसे किसी धर्म के पूर्वाग्रह से ग्रसित विचार समझेंगे. मारकाट का वो मंजर और अपनों को खोने का दर्द कोई कैसे भूल सकता है. मरनेवाले हिंदू भी थे और मुसलमान भी... परन्तु मुझे वो भी याद है, जो मैंने टीवी पर देखा था एक ट्रेन का डब्बा पुरी तरह से जला हुआ लोग उसके अंदर कितनी बेरहमी से तड़प तड़प कर मरे होंगे. सरकार ने बताया था आग पेंट्री डब्बे की वजह से लगी थी. सच्चाई मुझे आज भी नहीं पता, मुझे तो ये भी नहीं पता की उसका केस भी चल रहा है की नहीं... मगर आग का बदला आग तो नहीं होता...फ़िर धर्म हमें सहनशीलता भी तो सिखाती है. मीडिया ने, सरकार ने उस हादसे को भी भुला दिया, फ़िर हम क्यों नहीं भूलते... मगर शरीफा बीबी को क्या करना चाहिए, क्या उसे भी प्रतिकार करना चाहिए....लेकिन अभी तो आप कह रहे थे आग का बदला आग नहीं होता....कानून अपना काम कर रही है...कम से कम मीडिया और सरकार ने इसे बार बार हमारे दिमाग में डालकर उसे भूलने तो नहीं दिया है....कानून तो अपना काम अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर कर रही है पर मीडिया ने तो जैसे एक आँख में पट्टी बाँध रखी है....सोचता हूँ शरीफ़ा बीबी की तरह कोई कमला बेन से उसका दर्द भी क्यों नहीं पूछता. अगर हम ना भुला पाएँ तो पता नहीं इस घाव से कितना और खून बहेगा....और वह खून हिंदू का होगा या मुसलमान का यह पहचानना मुश्किल होगा....मैं तो बस अल्लाह से दुआ करूँगा..फ़िर किसी का खून ना बहे.....जो हुआ वो फ़िर कभी ना हो, सब मिलजुलकर रहें सब ईद और दिवाली मनायें....
राजेश जी, अत्यंत मार्मिक.
आप जैसे शरीफा को व्यंगात्मक तरीके से उकसा रहे हो. वैसे ही कई लोग ट्रेन में मरने वाले परिजनो को भी ऊकसा सकते है. इतिहास गवाह है. अगर भारत के लोग इसी तरह हर जुल्म का हिसाब रखते तो भारत पर आक्रमण करनेवाली प्रजाति के लोगो का भारत में नामोनिशान ना रहता. ना ही पाकिस्तान बनता ना ही बांग्लादेश बनता. असल बात क्यों छिपा रहे हो जनाब? क्यों नही कहते कि आपको मोदी की जीत रास नही आ रही?
राजेश जी बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने. आपने ठीक कहा है कि आज जो अनएक्सेप्टेबल है कल उसे एक्सेप्टेबल मान लिया जाता है, इसे हमारी मजबूरी या समय के साथ चलने का तरीका कहा जा सकता है.
होश में आओ जोशी जी पहले अपनी गरेबान में झांकिए और अपने जमीर को जगाइए और फिर बताइये की यदि ये सब कुछ आपकी आँखों के सामने आपके परिवार के साथ हुआ होता तो क्या आप फिर भी यही कहते कि जो कुछ हुआ उसे भूल जाओ, एक इन्सान के सामने उसकी मां और बहनों का बलात्कार किया जाये, गर्भवती औरतो के पेट फाडकर बच्चो को हवा में उछाल कर तलवार से काटा जाये , बच्चो और बूढों का ख्याल किये बगैर पूरी की पूरी बस्तियों को जला दिया जाये, किसी की माँओं और बहनों को नंगा करके उनके यौन अंगों को काट कर सड़को पर चलने के लिए मजबूर किया जाए और ये सब कुछ घंटों या एक, दो दिनों के बजाये महीने भर से भी ज्यादा चलता रहे, कौन भूल सकता है इस तरह की घटनाओं को. जोशी जी यदि आपके परिवार के साथ ये सब हुआ होता तो क्या आपके लिए ये भूलना मुमकिन होता? और फिर कितने बुरे हैं वो लोग और वो समाज जो बार बार उन्ही शैतानो को सत्ता में लाते हैं जिन्होंने ये सब करवाया था.
बहुत खूबसूरत . मेरे पास शब्द नहीं कि मैं इतनी खूबसूरत डॉयरी का बखान कर सकूं.
बीबीसी के ब्लॉग पढ़ने योग्य नहीं होते. देश में राम मंदिर और गोधरा प्रकरण केवल आप अपनी साइट पर जिंदा रखते हैं. मेरा घर मुसलमानों के घर से घिरा है. यहाँ कोई गुजरात या अयोध्या याद नहीं करता.
वाह हुजूर, वाह. इस चिट्ठी के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. कहां कोई अब चिट्ठी लिखता है. एसएमएस, मेल का जमाना जो ठहरा. फास्ट-फास्ट. सब कुछ फास्ट होना चाहिए. इस जमाने में आपकी चिट्ठी और उसके मजमून की दाद देता हूं....आपको मेरा सलाम.
लेकिन पुरानी बातें और यादें सदैव सालती रहती हैं.
राजेश जी, एक बार फिर से प्रयास करें, मेरे कहने से ही सही, गुजरात जाइये शायद आपको 2002 से पहले के दंगों की शरीफ़ा बीबी भी मिल जाए. यकीन मानिये मुझे दिल्ली में 1984 का कोई भी संता - बंता या सतवंती नहीं मिली. हैदराबाद में गुलाब बानो नहीं मिली तो मेरठ में सफिदन .......आपसे अनुरोध है ....बस एक सच्ची और सही पत्रकारिता करें ....आप तो कम से कम आदमी को आदमी समझिये. धर्म का चश्मा उतार कर मानवता से देखें. एक आम हिन्दू को "गुजरात 2002" का उतना ही दर्द है जीता "दिल्ली 1984" का ...तो "असम 2012" का. लेकिन आप "Paid News" की तरह लिखना बंद करदें. आखिर बीबीसी की भी कोई साख है.
बहुत अच्छा लिखा है.
बहुत अच्छा ब्लॉग. बहुत अच्छा लिखा है जोशी जी. होश की दवा खाओ लोगों, होश की दवा.
वो दर्द ही क्या जो दबने से दब जाए.
जोशी जी क्या आपने कभी रेल में जिंदा जलने वाले लोगों के परिवारों के बारे में सोचा है या लिखा है नही, क्या उनका दर्द समझा है नही, क्या उनका इंटरव्यू किया है नही, कितने परिवार बरबाद हुए कभी खोजा नही, दंगो में केवल मुसलमान ही मरे हिंदू तो आराम से थे सही है ? हिंदू तो एक भी नही मरा? या मरे भी थे तो बोगी में जलने वाले ओर दंगो में मरने वाले हिंदू ना तो इंसान थे ना ही उनके कोई इंसानी अधिकार थे इसलिए उनके बारे में क्या लिखना. मैं बीबीसी हिन्दी साइट दिन में कम से कम दो बार पढ़ता हूँ ओर हर रोज बी बी सी हिन्दी रेडियो सुनता हूँ, मैने आज तक पीड़ित हिन्दुओ के बारे में ना पढ़ा ओर ना ही रेडियो पर सुना. जरूरत क्या है, ना ही आज तक किसी कथित मानवाधिकार वाले ने उनको देखा... अरे मैं भी क्या अहमक हूँ हिंदू मानव थोड़े ना होते है जो उनका अधिकार वधिकार हो वो मरते है तो मरने दो भाई उनके बारे में लिखकर आप बुद्धिजीवी थोड़े ना कहलाओगे ... अरे बुद्दिजीवी कहलाना है ओर कोई अवॉर्ड वगरह लेना है तो हिन्दुओ को जी भरकर कोसो, साबित करदो की इस दुनिया में सबसे जालिम सबसे ख़तरनाक सबसे घटिया ओर ना जाने क्या क्या होते है हिंदू, इंसान तो होते ही नही ना कश्मीर में मरने वाले ना यूपी ना असम ना बिहार ना गुजरात ना कहीं ओर मरने वाले हिंदू इंसान नही होते है ..अरे मैं भी क्या हिन्दुओ की बात करने लगा अभी सांप्रदायक घोषित हो जाऊँगा, अवॉर्ड लेना है बुद्धिजीवी कहलाना है फंड लेना है तो केवल मुसलमानो की बात करो मुसलमानो की तारीफ करो भले ही वो हिन्दुओ को कश्मीर में मारे असम में मारे कोसिकला यूपी में मारे मुंबई आज़ाद मदान में कुछ भी करे शहीद स्मारक तोड़े सरे आम भारत को गाली दे वो सही है वो इंसानियत है हिंदू कौन होते है लात मारो इनको मरते है मरने दो ओर जाते जाते दंगे तो केवल गुजरात में ही हुए थे वो भी २००२ में बाकी तो ना कभी यू पी में ना असम में ना मुंबई में ना पंजाब में ना ना ना क्या अरे देश में कभी हुए ही नही सब शांति थी बी बी सी भी तुस्टिकरण के समाचार देता है अवॉर्ड लेना है या फ़ंड
राजेश जी कहीं आपकी अक्ल तो नहीं मारी गई, कहीं आपने नरेन्द्र मोदी का जूठा तो नहीं खा लिया है. गुजरात में हजारों शरीफा बीबीयों ने अपने प्रियजन खोये हैं और आप उन्हें भूल जानें को कह रहे हैं. ऊपर से उन्हें जिद्दी बता रहे हैं. उन्हें ही कूसूरवार ठहरा रहें हैं. ये जख्म इतनें गहरे हैं कि सदियों तक नहीं भूलाये जा सकते.
महोदय मैं आपके खिलाफ विचार रखता हूँ. क्या दँगे गुजरात मेँ ही हुए है? आप लोग क्यों असम, कश्मीर और राजस्थान के दँगे भूल जाते हो? क्योंकि शायद आपकी वो स्टोरी या तो बिकती नही या फिर आपको उसके लिए ना बोलने की रकम मिलती होगी.
सर, मैं आपसे गोधरा में मुसलमानों द्वारा मारे गए हिंदुओं के बारे में कुछ जानकारी बांटना चाहूँगा. क्या आपके हिम्मत है?
इस कहानी से मेरे आखों में आँसू आ गए. ये अस्वीकार्य है. शुक्रिया राजेश जी.
राजेश जी, आपने ठीक कहा हमें भुलाने की आदत है. जल्दी भूल जाते हैं. हमारी मानसिकता है ये.
सवाल यह है की क्या गारंटी है की ये 'विकास' की इमारतें और चमचमाती गाडियां एक दंगाई आग, आक्रोश और खून से सने जलती आँखों से आपको न देखें अगर इसके रहनुमा गद्दी से उतर जाएँ. यह 'तुम मुझे खून दो और मैं तुम्हे आजादी ( अपने ढंग से) दूँगा" की नयी राजनितिक विवेचना है! जहाँ जनता की चाहत राजनीति के मानदंड से चलते हैं.
बहुत समय बाद बीबीसी पर एक जानदार रिपोर्टर का जानदार ब्लॉग आया. खुशी हुई कि राजेश जोशी की नजर वहाँ तक पहुँची चहाँ आम आदमी की एक या दो साल पुरानी यादें नहीं पहुँच पातीं. गुजरात विशेषांक पर राजेश जोशी और रेहान फजल द्ववारा दी गई प्रस्तुति अतुल्य है.
शरीफा का जवाब- मेरी तो 10 साल पुरानी कहानी है, लोग तो हजारों साल पहले बनी सोमनाथ की कहानी नहीं भूलते बल्कि उसकी याद करके गुजरात की गद्दी पर बैठ गए.
बिल्कुल सही बात है जोशी जी. ऐसी ही भावनाएँ, मर्म और पीड़ा उन ट्रेन से निकली, अधजली लाशों को देख उनके परिवारजनों को हुई होगी.
शरीफा बी पर बहुत रहम आता है सेक्युलर लोगों को, पर जलाई गई ट्रेन में मरे रामू, श्यामू, राधा, कल्याणी पर किसी को रोना क्यों नहीं आता? क्या राम का भजन करने वालों ने इतना बड़ा अपराध कर दिया था कि उनको मौत की सजा मिलना तय था? उनका दोष ये था की वे अल्पसंख्यक नहीं थे. उनपर रोने वालों को हिंदूवादी, हिन्दू आतंकवादी, आरएसएसवादी, फासिस्ट और पता नहीं क्या क्या करार दिया जाएगा. इसलिए उन पर रोने और लिखने और उनका दर्द बयान करने की हिम्मत कोई माई का लाल पत्रकार नहीं करता. इस देश का प्रधानमन्त्री कहता है की इस देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है. क्यों भाई, बहुसंख्यक होना पाप है क्या? सबका हक़ बराबर का क्यों नहीं होना चाहिए? प्रशासन देश के नागरिकों में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव करके क्या धार्मिक और साम्प्रदायिक खाई को और चौड़ा नहीं कर रहा है? क्या मीडिया इस नफरत की आग में घी डालकर इस आग को और भड़का नहीं रही है? क्या दंगों में केवल एक धर्म का आदमी मारा जाता है? क्या बहुसंख्यक का मारा जाना मीडिया और सेकुलरों के लिए मायने नहीं रखता? क्या बहुसंख्यक के बच्चों और परिवार के मरने को प्रशासन और मीडिया द्वारा सामान्य घटना के रूप में लेना चाहिए?
जोशी सर, आपका व्यंग सही है.
चलो शरीफा बीबी तो नहीं भूल रही है, क्योंकि उसका बेटा मरा है, लेकिन तू क्यों नहीं भूल रहा है इस बात को, बीते जख्मों को कुरेदने में मजा आता है क्या? जोशी जी मैंने आपको तू इसलिए लिखा है कि शायद आप उस सम्मान के हकदार नहीं क्योंकि आप मरहम लगाने वाले नहीं, नमक छिड़कने वाले लगते हो? और ऐसा लिखकर शायद आप किसी संप्रदाय के नायक बन जाओ लेकिन सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में आप जैसे लोगों को जली कटी सुननी पड़ती है. भूल जाओ और आगे बढ़ों या उनको इतिहास भूलने में मदद करो और आगे बढ़ने का रास्ता दिखाओं जोशी जी. जब आग लगती है नुकसान सबका होता है.
ये आलेख संकीर्ण मानसिकता, नौकरी के लिए कुछ भी करने, मीडिया की गलत छवि, और बीबीसी की दुर्दशा भारत में क्यों हुई, और इसकी सार्थकता अब क्यों नहीं है, को दर्शाता है. जैसा कि अन्य लोगों ने भी कहा है, इन्हें 1982 के सिख दंगे और उसके बाद की क़ानूनी प्रक्रिया पर व्यंग, असम मैं हजारों आदिवासियों पर बंगलादेशियों के अत्याचार, कश्मीर के पंडितों का पलायन, जैसी कुछ अन्य घटनाएँ क्यों याद नहीं आती? बीबीसी के एक युग का अंत हमने देखा, अब इसको पूरी तरह से डुबोने की तैयारी लगती है.
जो बात हकीक़त है उससे हमें परहेज़ क्यों ..... जोशी जी, हक की बात कहने के लिए मै आपको मुबारकबाद देता हूँ . ये किसी धर्म संप्रदाय का साथ नहीं है बल्कि इंसानियत को खत्म करने का वह विषय है जो इसी हिंदुस्तान में हुआ.
राजेश जी आपने बहुत अच्छा लिखा है. 2002 को भूलना मुश्किल है.
जोशी साहब अग्रेज़ो ने भी तो भारत पर राज किया था और बर्बरतापूर्ण तरीके से भारतीय नागरिको की हत्याएँ की थी लेकिन आप भी तो सब कुछ भुलाकर उनके यहाँ नौकरी कर रहे है.
जोशी जी, आपको सरकार या मुसलमान देशों से कोई अवार्ड लेना है क्या जो तुम्हें सिर्फ गोधरा कांड दिखाई देता है?
आपकी तरह बेहद घटिया ब्लॉग औऱ सोच. आँखे खोल कर देखो फिर लिखो. आप पत्रकार नहीं कांग्रेस के नेता हैं.
मैं ये नहीं समझना चाहता कि आपने इस लेख में क्या बकवास लिखा है. मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि अगर मेरे घर में कोई आग लगायेगा तो मुझे उनकी बस्तियाँ जलाने में कोई परहेज नहीं है. और इस तरह के विधवा आलाप करने का कोई फायदा नहीं है. ये 2002 के दंगो का आशीर्वाद है जो गुजरात की तरक्की हो रही है.
मैं आपके इस बकवास लेख का बीबीसी पर लिखने का पूरा विरोध करता हूँ. क्या हो गया है बीबीसी को जो इतना घटिया लेख पढ़ने को हम श्रोता मजबूर हैं?
सेक्युलर बनने से आपको अवार्ड मिल जाएगा. ले लो.
जोशी जी, पत्रकारिता का पाठ पढ़ें भी या ऐसें ही चापलूसी करके बीबीसी का ठप्पा अपने माथे पर लगा लिया. आपका य्वंग पढ़कर तो लगता ही नहीं कि आप कोई पत्रकार हो सकतें हैं. ऐसीं बातें तो मुर्ख लोग करतें हें. क्या आपको पत्रकारिता का परम उद्देश्य पता हे? क्या आपको पत्रकारिता की परिभाषा पता है ? क्या आपको पत्रकार के कर्तव्य का ज्ञान है ? निसंदेह नहीं है. आप जैसे पत्रकार किसी देशद्रोही से कम नहीं हैं जो देश के लोगों को आपस में लड़ाने का काम करतें हैं. आपको सरिफा बीबी मालूम है पर उस पत्नी का नाम नहीं मालूम जिसके पति को ट्रेन के डब्बे में बंद करके जिन्दा जल दिया गया. पहले गलती किसने की?
ये लिखते समय तुम्हें ट्रेन में जल गए लोग याद नहीं आते और असम के मूल निवासियों का दर्द नहीं दिखाई देता? राम मंदिर अयोध्या में नहीं तो क्या पाकिस्तान या मक्का में बनेगा? इस पर लिखने की हिम्मत है तुम्हारे अंदर?
इस शानदार ब्लॉग को लिखने के लिए कितने रुपए मिले?